
2014-15 का 4.62 प्रतिशत एनपीए 2015-16 में बढ़कर 7.79 प्रतिशत हो गया। दिसंबर, 2017 तक यह 10.41 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। 2017 के अंत तक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए लगभग 7.70 लाख करोड़ रुपये था।
देश के बैंकिंग सेक्टर के कुल एनपीए में से सरकारी बैंकों का योगदान 86 प्रतिशत है।
जनसत्ता की खबर के अनुसार अप्रैल 2014 और अप्रैल 2018 के बीच देश के 21 सरकारी बैंकों ने 3,16,500 करोड़ रुपये के कर्ज को बट्टे खाते (राइट-ऑफ) में डाल दिया। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के डेटा के अनुसार, इसी अवधि में सरकारी बैंक केवल 44,900 रुपये की वसूली ही कर पाए। यह रकम बट्टे खाते में डाली गई कुल रकम के 14 फीसदी से भी कम है। इसे ऐसे समझें कि, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा जितनी राशि के बैड लोन्स को बट्टे खाते में डाला गया है, वह वित्तीय वर्ष 2018-19 के लिए देश के स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के बजटीय खर्च (1.38 लाख करोड़ रुपये) के दोगुने से भी ज्यादा है। इस अवधि (अप्रैल 2014-अप्रैल 2018) में 21 बैंकों ने जितनी रकम बट्टे खाते में डाली है, वह 2014 तक बट्टे में डाली गई रकम के 166 प्रतिशत से ज्यादा है।
संसद की वित्तीय समिति के समक्ष पेश किए गए अपने जवाब में केंद्रीय बैंक ने जो डेटा दिया है, उसके अनुसार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में मार्च 2018 के आखिर तक वसूली की दर 14.2 प्रतिशत रही। यह निजी बैंकों के 5 प्रतिशत की दर से करीब तीन गुना ज्यादा है। कुल बैंकिंग परिसंपत्तियों का करीब 70 प्रतिशत 21 सरकारी बैंकों के पास है, जबकि देश के बैंकिंग सेक्टर के कुल एनपीए का 86 प्रतिशत बैड लोन्स इन्हीं बैंकों से दिया गया है।
इसके बाद 2014-15 का 4.62 प्रतिशत एनपीए 2015-16 में बढ़कर 7.79 प्रतिशत हो गया। दिसंबर, 2017 तक यह 10.41 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। 2017 के अंत तक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए लगभग 7.70 लाख करोड़ रुपये था। एक वरिष्ठ बैंक अधिकारी के अनुसार, कर्ज को बट्टे खाते में डालना बैंकों द्वारा अपनी बैंलेंस शीट सुधारने का एक व्यापारिक फैसला है।
राइट ऑफ पर बोले आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर यह घोटाला है: लोन को ठंडे बस्ते में डाले जाने के बाद भी बैंक वसूली को लेकर कदम उठा सकता है। हालांकि, न तो ऐसे कर्ज की वसूली उत्साहजनक है और न ही इससे जुड़ी प्रक्रिया पारदर्शी है। एक सरकारी बैंक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘आमतौर पर बैंक उसी कर्ज को ठंडे बस्ते में डालते हैं, जिनकी वसूली संभव नहीं है। लोन लेने वालों को इसकी जानकारी भी नहीं दी जाती है। राइट ऑफ करने के बाद संबंधित लोन की गिनती एनपीए में नहीं की जाती है। ऐसे कर्ज को वसूल करने पर उसे संबंधित बैंक के लाभ में जोड़ दिया जाता है।’ आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी. चक्रवर्ती बैंक लोन को ठंडे बस्ते में डालने की प्रक्रिया को घोटाला बताते हैं। उन्होंने कहा, ‘टेक्निकल राइट-ऑफ जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। यह अपारदर्शी है और इसे बिना किसी नीति के अंजाम दिया जाता है। आमतौर पर संकट के समय में अच्छी तरह से समझ-बूझकर छोटी-मोटी राशि को बट्टे खाते में डाला जाता है। लोन को तकनीकी आधार पर ठंडे बस्ते में डालने से अपारदर्शिता पैदा होती है। साथ ही क्रेडिट रिस्क मैनेजमेंट का पूरा तानाबाना भी तबाह हो जाता है और बैंकिंग प्रणाली में तमाम तरह की गलत चीजें भी आने लगती हैं। यह जरूरी तौर पर बताना चाहिए कि लोन की कितनी राशि को ठंडे बस्ते में डाला जा रहा है, क्योंकि आप जनता के पैसे को बट्टे खाते में डाल रहे होते हैं। यह एक घोटाला है।’ बता दें कि वित्त वर्ष 2018 में एनपीए 10.3 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है।
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