
महेंद्र मिश्र
अब तक कोई दूसरा देश या उसका लोकतंत्र होता तो इस प्रधानमंत्री को सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने या फिर अवमानना के मामले में जेल हो गयी होती। हमको ये नहीं भूलना चाहिए कि इसी देश में एक प्रधानमंत्री को अदालती कठघरे में सिर्फ इसलिए खड़ा होना पड़ा था क्योंकि उसके चुनाव प्रचार में सरकारी जीप के साथ एक सरकारी शख्स ने हिस्सा ले लिया था। और उससे न केवल उसकी सांसदी छिन गयी थी बल्कि बाद में उसे पीएम पद तक गवांना पड़ा था। अदालत भी सर्वोच्च नहीं थी बल्कि एक हाईकोर्ट था।
यहां सीधे-सीधे सर्वोच्च अदालत की आंखों में धूल झोंकी गयी है। उसके सामने न केवल झूठ बोला गया है बल्कि उसके बल पर मनचाहा फैसला करवा लिया गया है। ये अपराध इसलिए कई गुना बढ़ जाता है क्योंकि सिर्फ सर्वोच्च अदालत नहीं बल्कि इसमें कई संवैधानिक संस्थाओं को भी लपेट लिया गया है। जिसमें उस सीएजी की रिपोर्ट का जिक्र किया गया है जो आयी ही नहीं। उस पीएसी से उसकी जांच की बात कही गयी है जिसमें वो कभी पेश ही नहीं हुई। और संसद तक में उसके हिस्से को रखे जाने का हवाला दे दिया गया है। जो कभी हुआ ही नहीं।
जब झूठ पकड़ लिया गया है तो अब इसे सरकार टाइप की गल्ती बता रही है। और अपना सारा दोष भी सुप्रीम कोर्ट के मत्थे मढ़ दे रही है। जबकि इस बात की पूरी आशंका है कि झूठ से कभी परहेज न करने वाले प्रधानमंत्री ने यहां इन झूठों को एक रणनीति के बतौर इस्तेमाल कर लिया है। जिसमें सबसे पहले उन झूठे तथ्यों के सहारे पक्ष में फैसला हासिल कर लेना था। और बाद में किसी हंगामा की स्थिति में कुछ ताइपो एरर या फिर किसी दूसरी क्लरिकल मिस्टेक या कोर्ट द्वारा सरकार की भावना को न समझ पाने आदि का बहाना बनाकर पूरे मामले को रफा-दफा कर देना था। लेकिन ये कोई टाइपो गलती नहीं है।
न ही इतनी छोटी है कि इस पर गौर न किया जाए। दरअसल कोर्ट का पूरा फैसला खासकर भ्रष्टाचार वाला मामला इसी तथ्य पर आधारित है। जिसमें कोर्ट ने कहा है कि राफेल की कीमतों के मामले में सरकार ने सीएजी के साथ रिपोर्ट साझा कर दी है और उस रिपोर्ट की पीएसी ने भी जांच कर ली है। ऐसे में इसे आसानी से दरकिनार नहीं किया जा सकता है। और कोर्ट के पास बंद लिफाफे में दिए गए तथ्य अगर किसी भी रूप में इसकी पुष्टि करते हैं तो उसे इस मामले को संज्ञान में लेना चाहिए। और इस पूरी प्रक्रिया में जो भी अफसर, मंत्री और न्यायिक अफसर शामिल हैं उनको कठघरे में खड़ा कर कोर्ट को गुमराह करने के एवज में उनके खिलाफ अवमानना का केस दर्ज करना चाहिए।
क्योंकि गल्ती एक नहीं हुई है। इसमें गल्तियां कई हैं। मसलन एचएएल और डसॉल्ट के बीच करार को कोर्ट में इस तरह से पेश किया गया है जैसे दोनों के बीच रिश्ते सहज नहीं थे और उनमें एक तरह की खटास काम कर रही थी। ऐसे में डसॉल्ट को रिलायंस के विकल्प पर जाना सुविधाजनक लगा। जबकि सच्चाई ये है कि इस मामले में डसॉल्ट के सीईओ ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की थी कि 95 फीसदी काम हो गया है और केवल 5 फीसदी बचा हुआ है। इसी तरह के एक दूसरे मामले में भी सरकार ने झूठ बोला। जब उसने कहा कि एयरचीफ मार्शल ने देश की सुरक्षा और संवेदनशील मसले का हवाला देते हुए राफेल विमानों की कीमतों को गोपनीय रखे जाने की जरूरत बतायी है। जब कि याचिकाकर्ताओं का कहना है कि उनके सामने वायु सेना के अफसरों ने ऐसी कोई बात कभी की ही नहीं। और उनसे कोर्ट ने सिर्फ तीसरे, चौथे और पांचवें जनरेशन के विमानों के बारे में पूछताछ की थी।
एक अन्य मामले में भी कोर्ट का फैसला सवालों के घेरे में खड़ा हो जाता है। जिसमें मुकेश अंबानी की कंपनी को अनिल अंबानी की कंपनी बनाकर पेश कर दिया गया है। और समझौते से महज 15 दिन पहले बनी कंपनी के बारे में बता दिया गया है कि उसकी बातचीत तीन साल पहले से डसॉल्ट से चल रही थी। अब इससे बड़ा ब्लंडर क्या होगा। जो कंपनी अभी पैदा भी नहीं हुई थी उसकी बातचीत दिखा दी गयी है। ये कुछ ऐसी तथ्यात्मक गलतियां हैं जिन पर कोर्ट को फिर से विचार करना होगा। और इन गलतियों के सामने आने के साथ ही पूरा फैसला सवालों के घेरे में खड़ा हो जाता है। क्योंकि फैसला भी इन्हीं तथ्यों पर आधारित है।
और सबसे खास बात ये है कि कोर्ट ने इस मामले में अपनी न्यायिक सीमाओं का हवाला दिया है। लिहाजा एक स्थिति के बाद इस मामले की गहराई से छानबीन का उसका अधिकार खत्म हो जाता है। इस तरह से उसने इशारे में ही सही इस बात की तरफ संकेत कर दिया है कि किसी दूसरी बड़ी एजेंसी से इसकी जांच करायी जानी चाहिए। जिसमें जेपीएस सबसे बेहतर विकल्प के तौर पर सामने आती है। मिनी संसद के तौर पर स्थापित इस निकाय को किसी भी तरह का अधिकार हासिल है। और उसकी अपनी कोई सीमा नहीं है। वो किसी को भी बुला सकती है और कोई भी कागज देख सकती है। और उसमें सभी दलों के लोगों के होने के चलते कोई ये भी नहीं कह सकता है कि वो पक्षपात करेगी।
इस मसले पर राहुल गांधी से माफी मांगने वाले बीजेपी नेताओं को खुद अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। और उन्हें खुद से ये सवाल करना चाहिए कि झूठे तथ्य मुहैया कराकर मनमुताबिक फैसला लेने वाली मोदी सरकार के साथ खड़ा होना उनके लिए कितना जायज होगा। साभार: जनचौक
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